इस्लामी कट्टरता की गोद में फिर से बैठने को आ​तुर क्यों दिख रहा है बांग्लादेश

सुभाष राज, स्वतंत्र पत्रकार, 18 अप्रेल 2025: दक्षिण एशिया का छोटा सा मुल्क बांग्लादेश, जो कभी भाषा और संस्कृति के नाम पर आजादी की जंग लड़कर इस्लामिक कट्टरता से अलग हुआ था, वह अब एक नई बहस के केंद्र में है क्योंकि यहां की पहचान अब बांग्ला राष्ट्रवाद से हटकर फिर से इस्लामी राष्ट्रवाद की ओर झुक रही है? इस छोटे से देश ने पिछले कुछ महीनों में जिस तरह की राजनीतिक उथल-पुथल देखी है, उसने इस सवाल को और तीखा बना दिया है। इस्लामी कट्टरता की गोद में फिर से बैठने को आ​तुर दिख रहे इस देश में अब न सिर्फ सेक्युलर विरासत पर सवाल उठ रहे हैं, बल्कि उसके लिए समूह हिंसा का सहारा भी लिया जा रहा है। हालांकि बांग्लादेश में अभी भी समाज की जड़ें मजबूत दिखाई दे रही हैं लेकिन इसके बावजूद भारत से गहराई से जुड़े इस देश में हो रहे ताजा बदलाव सिर्फ आंतरिक नहीं, बल्कि वैश्विक और क्षेत्रीय समीकरणों को भी प्रभावित कर सकते हैं।

वैसे तो बांग्लादेश विरोधाभासों पर टिका ऐसा देश है जिसने पाकिस्तान से बगावत करके अपने अस्तित्व पर विश्व की मुहर लगवाई थी। कभी पाकिस्तान का हिस्सा रहा यह मुल्क धर्म के आधार पर बना था, लेकिन भाषायी अस्मिता ने इसे अलग कर दिया। भारत की आजादी के आंदोलन के दौरान 1940 के दशक के अंत में जब उर्दू को राष्ट्रीय भाषा घोषित किया गया तो पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला की मांग ने जोर पकड़ा। 1950 के दशक में बोए गए भाषायी आंदोलन के बीज 1971 में आजादी की लड़ाई में फलित हुए। भारत की सहायता से लड़ी गई बांग्ला राष्ट्रवाद की लड़ाई इस्लाम से इतर नहीं थी लेकिन धर्म को राष्ट्र की बुनियाद बनाने के विचार को चुनौती दे रही थी। इसी वजह से आजाद होने के बाद बांग्लादेश सेक्युलर गणतंत्र के रूप में उभरा, जहां कट्टरपंथी गुटों पर पूरी तरह रोक लगा दी गई थी।

हालांकि बांग्लादेश का सेक्युलर चेहरा लंबे समय तक अटूट नहीं रहा। 1970 के दशक के मध्य में संस्थापक नेता की हत्या और सैन्य तख्तापलट ने झटका दिया। नए शासकों ने संविधान से सेक्युलरिज्म हटाया, इस्लामी पार्टियों पर पाबंदी हटाई और 1980 के दशक में इस्लाम को राजकीय धर्म का दर्जा दे दिया। लेकिन नई सदी के पहले दशक के अंत में सत्ता में आई सरकार ने सेक्युलरिज्म को बहाल करने की कोशिश की। संविधान में इस्लाम राजकीय धर्म था लेकिन साथ ही धर्मनिरपेक्षता और अन्य धर्मों के समान अधिकारों की गारंटी भी सुनिश्चित की गई। इसका एक हाइब्रिड मॉडल इस देश में शुरू से ही मौजूद था।

अगस्त 2024 में पूर्व सरकार के पतन के बाद यह संतुलन फिर डगमगा गया। नए अंतरिम प्रशासन ने कई सुधार आयोग बनाए, जिनमें से एक ने संविधान से सेक्युलर शब्द हटाने की सिफारिश की। इस सरकार को उन संगठनों का समर्थन मिल रहा है जो आजादी की लड़ाई में पाकिस्तान के साथ खड़े थे और स्वतंत्र बांग्लादेश का विरोध करते रहे। हाल ही में एक साक्षात्कार में एक संगठन के नेता ने 1971 के रुख को सिद्धांतपूर्ण बताते हुए पिछले दशकों में बाहरी दखल पर सवाल उठाकर अपने इरादे स्पष्ट कर दिए।

वैसे भी बांग्लादेश में सेक्यूलरिज्म राजनीतिक निर्णय ही अधिक था क्योंकि 1980 के दशक से खाड़ी देशों में काम करने गए लाखों बांग्लादेशियों ने वहां कट्टर इस्लामी रूप देखा और घर लौटकर उसी रुख को मदरसों और समाज में फैलाया। कट्टर इस्लामी सोच को विदेशी फंडिंग ने मदरसों के माध्यम से मजबूत किया। यह सोच पारंपरिक बंगाली इस्लाम से अलग होने कारण राष्ट्रवाद में असहजता बढ़ी। इससे बांग्लादेश संस्थापक के घर पर हमले तक हुए। हाल के महीनों में धार्मिक अतिवाद में भारी वृद्धि देखी गई, जो राजनीतिक अस्थिरता से और बढ़ रही है।

वैश्विक विश्लेषक लगातार चेता रहे हैं कि सत्ता के शीर्ष पर खालीपन से राजनीतिक इस्लाम मजबूत हो सकता है। फिर भी इतिहास गवाह है कि बांग्लादेश का समाज इतनी आसानी से नहीं झुकता। यहां का राष्ट्रवाद हमेशा बांग्ला संस्कृति और इस्लाम का मिश्रण रहा है। भाषायी गौरव अभी भी जिंदा है, बिना पारंपरिक पाबंदियों के लोग वैज्ञानिकों की जयंतियां मनाते हैं और महिलाएं आधुनिक जीवन जीती हैं। पाकिस्तान के धार्मिक राष्ट्रवाद के अनुभव से सीखे सबक और स्वयं पर भाषाई आधार पर हुए अत्याचार की यादें अभी भी जनमानस में ताजा हैं। सदियों से ये माना जाता रहा है कि समाज की मजबूती इस्लामी ताकतों को रोक सकती है, क्योंकि लोग अतीत की गलतियां दोहराना नहीं चाहेंगे। वैसे भी पूर्व में कई सरकार बंगाली राष्ट्रवाद को मिटाने में नाकाम रही और अब भी यह बांग्लादेश की एकता का आधार है।

जहां तक क्षेत्रीय मोर्चे का सवाल है तो राष्ट्रवाद की बहस में देश के दुश्मन की परिभाषा बदल रही है। पहली बार ये देखा जा रहा है कि ये देश पाकिस्तान को नहीं बल्कि भारत दुश्मनी के भाव से देख रहा है। कुछ राजनीतिक आवाजें स्वर बुलंद कर रही हैं कि 1971 की आजादी भारत का स्वार्थ थी। वे गर्वोक्ति कर रहे हैं कि बांग्लादेश की सेना छोटी होने के बावजूद देश में 20 करोड़ लोग योद्धा हैं। शायद यही कारण है कि बांग्लादेश की विदेश नीति में इस्लामी झुकाव बढ़ा है, जो भारत के लिए एक जटिल स्थिति है।

वैसे बांग्लादेश एक चौराहे पर खड़ा है। बांग्ला राष्ट्रवाद की जड़ें गहरी होने के बाद भी देश में इस्लामी प्रभाव बढ़ रहा है। अगर यह शिफ्ट जारी रहा तो मुल्क टूटने के कगार तक पहुंच सकता है। वेसे बांग्लादेशी समाज का लचीलापन भी भी सकारात्मकता का भाव रखने वालों की आशा को जगाए हुए है।

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