सुभाष राज, 26 जनवरी 2025: आज 26 जनवरी 2025 है और आज ही हमारा संविधान 75 साल की उम्र पूरी कर 76वें साल में प्रवेश कर चुका है। 75 साल पहले 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने लम्बी बहस के बाद संविधान को भारत पर लागू करने को मंजूरी दी थी। वैसे हमारा संविधान दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान है जिसमें नागरिकों के अधिकार और कर्तव्यों के विस्तृत विवरण के साथ ही शासन चलाने के तरीके और शासन के औजार के रूप में तीन खम्भों को कानूनी शक्ल दी गई थी।
75 वर्षों की इस अवधि में इसमें 100 से अधिक संशोधन संसद ने किए हैं। चूंकि पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में संविधान को बदलने या खत्म करने के विपक्षी दलों के आरोप प्रमुख मुद्दा बनकर उभरे जिसका असर कुछ ऐसा हुआ कि सत्ताधारी भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया।
इसलिए संविधान की आयु 75 वर्ष होने के अवसर पर ये विश्लेषण जरूरी है कि क्या हमारा संविधान सामाजिक न्याय, शिक्षा, जागरूकता, आर्थिक विकास, धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी में भूमिका निभा पाया। बदलती टेक्नोलॉजी के ताजा दौर में ये जानना बेहद दिलचस्प होगा कि संविधान नित नई चुनौतियों का सामना कैसे कर रहा है और क्या वह संविधान निर्माताओं की उम्मीदों पर खरा उतरा है?
समानता, समावेशिता और अस्पृश्यता उन्मूलन की गारंटी देने वाला संविधान सामाजिक न्याय और समानता की राह पर आगे बढ़ रहा है या फिर वह राजनीतिक खींचतान और वोट की राजनीति के चलते अपने रास्ते से भटक गया है। अगर निरपेक्ष भाव से देखा जाए तो संविधान अवसर की समानता और आरक्षण के जरिए पिछड़े, शैक्षिक और सामाजिक रूप से वंचित समुदायों को आवाज देने वाला साबित हुआ है।
आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण इसका वह नया प्रावधान है जिसने उन लोगों को राहत दी है, जो गरीबी रेखा से ऊपर तो हैं लेकिन आर्थिक रूप से मजबूत नहीं हैं। यहां सवाल उठता है कि क्या यह पर्याप्त है? क्या उप-वर्गीकरण की मांग दलित समुदायों के बीच एकता को कमजोर कर रही है। क्या आरक्षण में उप-वर्गीकरण से आपसी टकराव बढ़ सकता है, जो संविधान की एकजुटता की भावना को चुनौती देगा।
संविधान ने भारत को एक कार्यात्मक लोकतांत्रिक व्यवस्था दी, जहां पहले राजा-महाराजाओं और नायक पूजा का बोलबाला था। यह दस्तावेज दलितों, महिलाओं और वंचितों को नागरिक अधिकार देता है, जिससे उनकी भागीदारी बढ़ी है।
पहले कर्मकांडों और धार्मिक ग्रंथों पर आधारित समाज अब समानता, न्याय और बंधुत्व की किताब पर चलता है। लेकिन जाति-आधारित राजनीति और अस्मिता की चेतना अभी भी मौजूद है। आरक्षण को अक्सर गलत समझा जाता है, जबकि यह शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने का औजार है न कि गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम। ईडब्ल्यूएस और उप-वर्गीकरण जैसे कदम संविधान की मूल भावना पर सवाल उठाते हैं, क्योंकि ये सामाजिक एकता को प्रभावित कर सकते हैं।
वैसे पिछले एक दशक में संविधान के प्रति जागरूकता बढ़ी है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों की जानकारी अभी भी सीमित है। सोशल मीडिया इस कमी को दूर करने का एक शक्तिशाली माध्यम बन रहा है क्योंकि वह संविधान के हर पहलू को लोगों तक पहुंचा सकता है। लेकिन इसके साथ झूठी खबरें और भड़काऊ बयानबाजी से पैदा होने वाला सामाजिक तनाव बड़ी चुनौती बनकर उभरा है।
संविधान अभिव्यक्ति की आजादी देता है, लेकिन इसकी सीमाओं का पालन जरूरी है। इसके लिए ग्रामीण भारत में संवैधानिक जागरूकता बढ़ाने के लिए शिक्षा और डिजिटल साक्षरता पर जोर देना होगा।संविधान में न्यायपालिका को समीक्षा का अधिकार देने वाले संविधान निर्माताओं ने मीडिया को भी लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभ के रूप में मान्यता दी है लेकिन इन दिनों दोनों पर सवाल उठ रहे हैं।
हाल के वर्षों में न्यायपालिका पर दबाव और कुछ फैसलों के बाद जजों की नियुक्तियों ने न्यायविदों निष्पक्षता पर नई बहस छेड़ दी है। असल में संविधान अपेक्षा करता है कि सुप्रीम कोर्ट उल्लंघन की शिकायत पर सक्रियता दिखाए, लेकिन कई बार वह चुप्पी साध लेता है। इसके अलावा फर्जी खबरों के अबाध प्रसार के चलते संविधान के रक्षक भी स्वयं को असहाय पा रहे हैं। दूसरी ओर, मीडिया संविधान की भावना को जनता तक पहुंचाने में नाकाम रहा है।
पत्रकारिता को जवाबदेह बनाने के लिए अभी देश में कोई प्रभावी कानून नहीं है। इसी के चलते मीडिया पक्षपाती दिख रहा है और सोशल मीडिया फर्जी खबरों के प्रसार के कारण लाचारी के भाव में है। हालांकि सोशल मीडिया ने वंचितों को आवाज भी दी है और मुख्यधारा की मीडिया पर सवाल उठाकर वह समाज को नया दृष्टिकोण भी दे रहा है।
संविधान की 75 साल की यात्रा पर विहंगम दृष्टि डाली जाए तो उसने भारत को एक लोकतांत्रिक ढांचा दिया लेकिन इसकी भावना को पूरी तरह लागू करना बाकी है। सामाजिक असमानता, जातिगत टकराव और आर्थिक विषमता अभी भी देश के रास्ते की चुनौतियां हैं। आरक्षण का अंतिम लक्ष्य सामाजिक गरिमा और समानता सुनिश्चित करना था लेकिन वह अभी अधूरा है।
हकीकत ये है कि देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों तक को सामाजिक रीति-रिवाजों की पालना के लिए पुलिस सुरक्षा की जरूरत पड़ती है। इससे साफ है कि पीढ़ीगत भेदभाव समाज में अभी भी कायम है। यद्यपि टेक्नोलॉजी ने देश की जनता को नए अवसर दिए हैं लेकिन झूठी खबरों और सामाजिक तनाव ने इसकी उपयोगिता को सीमित कर दिया है।
संतोष की बात ये है कि 75 साल बाद भी हमारा संविधान ऐसा जीवंत दस्तावेज है जो देश को एकजुट रखने में कामयाब रहा है। लेकिन भविष्य में इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि हम इसकी भावना को कितना आत्मसात करते हैं। सामाजिक न्याय, समानता और जागरूकता के लिए हमें संविधान के प्रावधानों को जमीन पर उतारना ही होगा। इसलिए समय आ गया है कि अब हम विभाजनकारी राजनीति को छोड़कर एक समावेशी समाज की ओर बढ़ें, जहां हर नागरिक अपनी संवैधानिक पहचान पर गर्व कर सके।
