विकसित देशों की दादागिरी! ना कार्बन उत्सर्जन घटाएंगे ना ही देंगे वित्तीय सहयोग

सुभाष राज, स्वतंत्र पत्रकार, 26 जून 2025: जलवायु परिवर्तन पर विकसित और ग्लोबल साउथ के देशों के बीच एक अघोषित संघर्ष छिड़ गया है। विकसित देश एक ओर अपना कार्बन उत्सर्जन घटाने को तैयार नहीं है दूसरी ओर वे चाहते हैं कि अविकसित या अल्प विकसित ग्लोबल साउथ के देश जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए धन की पर्याप्त व्यवस्था में हिस्सेदारी बटाएं। जिन्हें हम आज ग्लोबल साउथ के देशों के रूप में जानते हैं वे पिछले दो दशक पहले तक तीसरी दुनिया के देश कहलाते थे।

इनमें अधिकांश आज भी अविकसित हैं। जहां तक दुनिया की सबसे बड़ी चुनौतियों की बात है तो जलवायु परिवर्तन आज की सबसे बड़ी समस्या और चुनौती है, जो पूरे ग्लोब का दम घोंट रही है। जलवायु परिवर्तन का असर केवल पर्यावरण तक सीमित नहीं है, बल्कि अर्थव्यवस्था, समाज और अंतरराष्ट्रीय राजनीति तक को प्रभावित कर रहा है। दुनिया के सभी देश ये मान रहे हैं कि इस संकट से निपटना जरूरी है, लेकिन इसकी कीमत चुकाने पर इनके बीच मतभेद है। इसी वजह से विकसित और विकासशील देशों के बीच एक लंबा संघर्ष छिड़ा हुआ है।

नवंबर 2025 में ब्राजील में होने वाले अगले जलवायु सम्मेलन (सीओपी-30) का एजेंडा तय करने के लिए इन दिनों जर्मनी के बॉन में बैठकें हो रही हैं। इनका विषय जलवायु वित्त व्यवस्था यानी क्लाइमेट फाइनेंस है। विकासशील देशों का मानना है कि विकसित देशों को न केवल अधिक धन देना चाहिए बल्कि खुद भी उदारता से योगदान करना चाहिए। वहीं विकसित देश वित्तीय योगदान की बात तो कर रहे हैं, लेकिन सीधे देने की अपेक्षा अगर—मगर कर रहे हैं।

जबकि 2015 के पेरिस समझौते में साफ कहा गया था कि विकसित देशों की जिम्मेदारी है कि वे विकासशील देशों की मदद करें। समझौते के अनुच्छेदों में स्पष्ट है कि विकसित देश न सिर्फ पैसा देंगे, बल्कि इसे जुटाने में अग्रणी भूमिका भी निभाएंगे। लेकिन हकीकत ​इस समझौते की भाषा से परे है।

जबकि 2024 में बाकू में हुए जलवायु सम्मेलन (सीओपी-29) में विकसित देशों ने 2035 से हर साल 300 अरब डॉलर देने की बात मान ली थी लेकिन यह नहीं बताया कि उसमें उनका प्रत्यक्ष योगदान कितना होगा। तब विकासशील देशों ने इसे आधा-अधूरा और निराशाजनक बताया था।

भारत ने इस राशि को बहुत कम बताया और स्पष्ट किया कि यदि पर्याप्त वित्तीय सहायता नहीं मिली तो उसके लिए भविष्य में अपने जलवायु प्रयासों को घटाना मजबूरी बन जाएगी। यह कथन केवल भारत का नहीं, बल्कि उन सभी देशों की बेचैनी का प्रतीक है जो जलवायु संकट के सबसे ज्यादा शिकार हैं लेकिन संसाधनों के मामले में सबसे कमजोर हैं।

बॉन में हो रही ताज़ा बैठक में विकासशील देशों ने एक बार फिर इस मुद्दे को टेबल पर रखा है। शुरुआत में विकसित देशों ने टालमटोल की, बातचीत दो दिनों तक रुकी रही, लेकिन अंततः उन्हें मानना पड़ा कि वित्तीय जिम्मेदारी पर औपचारिक चर्चा की जाएगी।

यह विकासशील देशों की एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण जीत है। उन्होंने यह दिखा दिया कि यदि वे एकजुट हों तो बड़े-बड़े देशों को भी जवाबदेह ठहराया जा सकता है। इस चर्चा का नतीजा एक रिपोर्ट के रूप में निकलेगा जो सीओपी-30 में रखी जाएगी और वहीं से आगे की दिशा तय होगी।

इस पूरी कवायद में भारत ने न केवल अपनी आवाज बुलंद की बल्कि अन्य विकासशील देशों को भी एक मंच पर लाने में सफलता पाई। इसमें एशियाई, अफ्रीकी और छोटे द्वीपीय देशों तक की भागीदारी रही। भारत का संदेश स्पष्ट था। भरोसा तभी कायम रह सकता है जब वित्तीय वादों को पूरा किया जाए।

असल में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भारत पर बेहद गहरा है। उसके समुद्र तट कट रहे हैं, हिमालयी ग्लेशियर पिघल रहे हैं और चरम मौसमी आपदाएं बढ़ रही हैं। ऐसे में भारत का दबाव केवल अपने लिए नहीं बल्कि उन सभी देशों के लिए है जो समान संकट झेल रहे हैं।

जलवायु वित्त का सवाल दरअसल ‘भरोसे’ का सवाल है। यदि विकसित देश बार-बार वादे करें और उन्हें निभाएं नहीं तो अंतरराष्ट्रीय सहयोग की पूरी प्रक्रिया कमजोर पड़ जाएगी। विकासशील देश यह महसूस करेंगे कि उन्हें धोखा दिया जा रहा है और वे अपने प्रयासों को सीमित करने लगेंगे। नतीजा यह होगा कि पूरी दुनिया जलवायु संकट की लड़ाई में पीछे रह जाएगी।

विकसित देशों के पास संसाधन भी हैं और तकनीक भी। लेकिन वे अक्सर इस डर में रहते हैं कि कहीं वित्तीय प्रतिबद्धता उनके लिए बोझ न बन जाए। जबकि वास्तविकता यह है कि यदि आज निवेश नहीं किया गया तो भविष्य में होने वाला नुकसान उनके लिए अधिक महंगा साबित होगा।

बॉन की चर्चा ने यह साबित किया है कि दबाव और एकजुटता से माहौल बदला जा सकता है। अब असली परीक्षा ब्राजील में होने वाले सम्मेलन की है। वहां यह देखना होगा कि क्या विकसित देश केवल घोषणाएं करेंगे या वास्तविक योगदान भी तय करेंगे।

भारत और अन्य विकासशील देशों के लिए चुनौती यह है कि वे अपनी एकजुटता बनाए रखें और सुनिश्चित करें कि जलवायु वित्त का मुद्दा हाशिए पर न जाए। इसके साथ ही ये भी ध्यान रखना होगा कि वित्तीय संसाधन मिलने के बाद उनका उपयोग पारदर्शी और न्यायसंगत ढंग से हो।

जलवायु परिवर्तन की लड़ाई सिर्फ तकनीक और नीतियों की नहीं है, बल्कि संसाधनों की भी है। जब तक धन का प्रवाह न्यायपूर्ण तरीके से नहीं होगा, तब तक संतुलन नहीं बनेगा। भारत की भूमिका इस दिशा में अहम है क्योंकि वह विकासशील देशों की आवाज़ को मजबूती से सामने ला रहा है।

ब्राजील में होने वाला अगला सम्मेलन इस बात की कसौटी होगा कि दुनिया अपने वादों पर कितनी गंभीर है। अगर विकसित देश आगे आएं और ईमानदारी से योगदान दें तो यह भरोसे को मजबूत करेगा। यदि टालमटोल जारी रही तो न केवल जलवायु संकट गहराएगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग की पूरी इमारत हिल जाएगी।

हमें यह याद रखना होगा कि जलवायु परिवर्तन की आग में कोई देश अकेला नहीं झुलसता। यह साझा संकट है और इसे हर हाल में साझा जिम्मेदारी से ही सुलझाया जा सकता है।

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