सुभाष राज, स्वतंत्र पत्रकार, 8 अगस्त 2025: सभ्यताओं का रक्षक हिमालय केवल भारत का ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया का जीवन-स्रोत है। गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु जैसी महान नदियां इसी पर्वत से निकलती हैं और करोड़ों लोगों की प्यास बुझाती हैं, खेतों को सींचती हैं और सभ्यताओं को भविष्य के लिए तैयार रखती आई हैं। लेकिन आज वही हिमालय खतरे में है। उस पर जमीं बर्फ की परतें तेज़ी से पिघल रही हैं, ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं और उनकी जगह बन रही झीलें नए तरह की आपदाओं का संकेत दे रही हैं। इन झीलों से हमेशा ये आशंका रहती है कि अचानक इनके किनारे टूट जाएं और पलभर में नीचे बसे गांव-शहर जलमग्न हो जाएं।
इस तरह की अचानक आने वाली आपदा को वैज्ञानिक भाषा में ‘ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड’ यानी जीएलओएफ कहा जाता है। जब झील पर बादल फटते हैं, लगातार बारिश होती है या आसपास की बर्फ अचानक पिघल जाती है तो बढ़ते दबाव से झील की दीवारें टूट जाती हैं। नतीजा, कुछ ही मिनटों में लाखों घनमीटर पानी नीचे की ओर बह निकलता है और रास्ते में आने वाली हर चीज़ को तबाह कर देता है।
उत्तराखंड से लेकर सिक्किम तक साल दर साल बादल फटने से आने वाली ऐसी आपदाएं अब सामान्य हो चलीं हैं और सरकारें केवल अध्ययन और निष्कर्षों में व्यस्त हैं। दो साल पहले सिक्किम की तीस्ता नदी में आई भीषण बाढ़ एक झील टूटने का परिणाम थी। झील पर बादल फटने से पानी तीस्ता में जा पहुंचा और नदी का जलस्तर 20 फीट तक बढ़ गया। इसी तरह हाल ही उत्तराखंड के धराली में भी ऐसा ही हादसा हुआ। नतीजा ये हुआ कि बांध बह गए, पुल ढह गए और सैकड़ों लोग मौत के मुंह में समा गए। हजारों लोग बेघर हो गए और राज्य की अर्थव्यवस्था को गहरा झटका लगा। यह कोई पहली और आखिरी घटना नहीं थी। पिछले एक दशक में नेपाल, भूटान और तिब्बत में भी कई झीलें फट चुकी हैं।
असल में हिमालय का पूरा पूर्वी इलाका इस दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। वहां की भौगोलिक बनावट, ऊंचाई पर बने जलाशय और लगातार बदलता मौसम मिलकर हर समय एक नए खतरे को जन्म देता रहता है।
जलवायु विज्ञानियों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन की सबसे गंभीर मार ग्लेशियरों पर पड़ी है। बीते कुछ दशकों में हिमालयी ग्लेशियर अभूतपूर्व गति से पिघल रहे हैं। यह प्रक्रिया दोहरी मार लेकर आती है। एक तरफ नदियों में पानी का असंतुलन पैदा होता है, दूसरी तरफ ग्लेशियर पिघलने से जो खाली जगह बनती है, उसमें झीलें बन जाती हैं।
ये झीलें शुरू में स्थिर दिखाई देती हैं, लेकिन इनके किनारे बर्फ, पत्थर और रेतीली मिट्टी से बने होते हैं, जो बहुत मजबूत नहीं होते। जब उन पर दबाव बढ़ता है तो वे टूट जाते हैं और झील अचानक खाली हो जाती है। यही वह पल होता है, जब ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड जैसी आपदा सामने आती हैं।
हालांकि इस खतरे को कम करने के लिए विज्ञानी ऊंचाई पर बनी झीलों का बारीकी से अध्ययन कर रहे हैं। उनकी गहराई, चौड़ाई और किनारों की मजबूती को मापा जा रहा है। ‘बाथिमेट्रिक सर्वे’ जैसी तकनीक से मापा रहा है कि झील कितनी गहरी है और उसके नीचे की ज़मीन किस तरह की है। इसके साथ ही यह अनुमान भी लगाया जा रहा है कि अगर झील टूटे तो पानी किस दिशा में बहेगा और कितनी तबाही मच सकती है। सेटेलाइट तस्वीरों, ड्रोन सर्वे और भौगोलिक आंकड़ों की मदद से एक विस्तृत सूची भी तैयार की जा रही है कि कौन-सी झीलें सबसे ज्यादा संवेदनशील हैं।
इस तरह के अध्ययन तो पर्याप्त मात्रा में और सही दिशा में हो रहे हैं लेकिन वे सार्थक तभी होंगे जब उनके निष्कर्षों को जमीनी स्तर पर लागू किया जाए। इसलिए जरूरी यह है कि संवेदनशील झीलों के किनारों को मजबूत किया जाए। जहां संभव हो वहाँ पानी के निकासी मार्ग बनाए जाएं ताकि दबाव बढ़ने पर पानी स्वतः बाहर निकल सके। नदियों और नालों के किनारों पर सुरक्षात्मक ढांचे खड़े किए जाएं ताकि बाढ़ का असर कम से कम हो। साथ ही, पुलों, बांधों और सड़कों जैसी संरचनाओं को इस तरह बनाया जाए कि वे आपदा के दबाव को झेल सकें।
इसके अलावा स्थानीय समाज की भूमिका भी बेहद अहम है। पहाड़ी गांवों के लोगों को भी यह जानकारी देनी चाहिए कि उनके आसपास कौन-सी झीलें खतरे वाली हैं। उन्हें चेतावनी संकेतों को पहचानने की ट्रेनिंग भी दी जाए।
अगर लोग खुद जागरूक होंगे तो नुकसान काफी हद तक कम किया जा सकता है।
असलियत ये है कि ग्लेशियर झीलों का खतरा केवल स्थानीय आपदा नहीं है। यह जलवायु परिवर्तन की उस बड़ी तस्वीर का हिस्सा है जो पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही है। वैश्विक तापमान हर साल बढ़ रहा है, बर्फ की परतें पीछे हट रही हैं और समुद्र का स्तर भी ऊपर जा रहा है। अगर यह प्रक्रिया इसी गति से जारी रही तो आने वाले दशकों में हिमालयी नदियों का संतुलन भी बिगड़ जाएगा। कभी इन नदियों में बाढ़ आएगी तो कभी सूखा पड़ेगा। कृषि, ऊर्जा और पेयजल सभी पर इसका असर पड़ेगा। यानी हिमालय की झीलें केवल पहाड़ों की नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की समस्या हैं।
इस संकट से निपटने के लिए साझा जिम्मेदारी की जरूरत है। केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर काम करना होगा। वैज्ञानिक संस्थानों को केवल रिपोर्ट बनाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उनके निष्कर्षों को नीति और योजनाओं में बदला जाना चाहिए। इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय सहयोग भी लेना आवश्यक होगा क्योंकि हिमालय केवल भारत का नहीं है। नेपाल, भूटान और तिब्बत भी इसी श्रृंखला का हिस्सा हैं।
हिमालय हमें बार-बार चेतावनी दे रहा है। सिक्किम और उत्तराखंड की घटनाओं के रूप में संकेत भी दे रहा है कि अगर अब भी सबक नहीं लिया तो आने वाले समय में तबाही और बड़ी होगी। इसके लिए हमें यह समझना होगा कि हिमालय केवल बर्फ और चट्टानों का ढेर नहीं है। यह करोड़ों लोगों की प्यास बुझाने वाला जलस्रोत है, खेतों की हरियाली है और सभ्यता की जीवनरेखा है। अगर इसकी झीलें असुरक्षित हो गईं तो हमारी आने वाली पीढ़ियों को नदियों का पवित्र प्रवाह नहीं, बल्कि बाढ़ और विनाश ही देखने को मिलेगा।
